अगम: सुशासन की एक पहल| शांतनु मिश्रा एवं प्रमोद कुमार
विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम अर्थात FCRA अधिनियम को भारत में सर्वप्रथम 1975 के आपातकाल के दौरान लागू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक विषयों की चर्चा में विदेशी धन और विदेशी प्रभाव को विनियमित/नियंत्रित करना तथा राष्ट्रीय हित के विरुद्ध विदेशी धन के प्रयोग को प्रतिबंधित करना था। अक्सर विदेशी धन का प्रभाव निम्न गतिविधियों में पाया जाता हैं जैसे धार्मिक समूहों द्वारा धर्मांतरण कार्यक्रमों को अंजाम देना, उन लोगो की सहायता करना जो अनेकानेक विकास कार्यो जैसे बड़े बांधों का निर्माण, विभिन्न उद्योगों, बिजली संयंत्रों आदि की स्थापना के विरुद्ध स्थानीय लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काते हैं और उनके बीच अलगाव की भावना पैदा करते है इत्यादि।

वर्ष 1976 के बाद से जब यह अधिनियम पहली बार संसद में पारित किया गया था, इसमें कई संशोधन किए गए हैं और वर्ष 2010 में निवर्तमान यूपीए की सरकार ने पिछले अधिनियम को पूरी तरह से निरस्त करके एक नया अधिनियम पारित किया था और इससे संबंधित नियमों को और कठोर एवं सख्त बना दिया था। उस समय के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि "एनजीओ को विदेशी योगदान के रूप में मिलने वाले लगभग 20,000 करोड़ रुपये के वार्षिक फंड में से किसी को नहीं पता कि 50% यानी 10,000 करोड़ रुपये कहां जाते हैं।"
अभी हाल ही में, 29 सितंबर को उपरोक्त अधिनियम में एक और संशोधन किया गया है और इसे और भी अधिक सख्त एवं कठोर बनाया गया है।  यद्यपि सरकार के पास एनजीओ क्षेत्र को विनियमित करने का पूर्ण अधिकार है लेकिन इस बार किए गए संशोधनों ने आने वाले समय के लिए बड़ी संख्या में गैर-सरकारी संगठनों के सुचारु रूप से संचालन में संकट पैदा कर दिया है।
ये नवीन संसोधन न केवल विभिन्न विनियामक अनुपालनों को बढ़ाकर गैर-सरकारी संगठनों पर अतिरिक्त बोझ डालता हैं वरन विभिन्न प्रशासनिक मद पर होने वाले खर्चे की सीमा को 50% से घटाकर 20% करके बहुत सारे गैर-सरकारी संगठनों द्वारा उन विनियामक अनुपालनों का अनुपालन करना भी लगभग असंभव बना देता हैं। यह आने वाले समय में विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों के सुचारू कामकाज में बाधा डालेगा और इससे वैसे सभी गैर-सरकारी संगठनों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो जाएगा जो अन्यथा क्षमता वृद्धि गतिविधियों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, व्यवहार परिवर्तन गतिविधियों, जागरूकता कार्यक्रमों, अनुसंधान संस्थानों, स्कूलों, अस्पतालों आदि को चलाने में योगदान दे रहे हैं।  इन गैर-सरकारी संगठनों के कर्मचारियों पर होने वाला खर्च गैर-प्रशासनिक खर्च की श्रेणी में आता हैं और चूंकि इनमे से अधिकांश कर्मचारी सीधे लाभार्थियों के साथ मुखातिब नहीं होते हैं इसीलिए ये खर्चे अब ओवरहेड्स (अतिरिक्त खर्चे) की श्रेणी में गिने जाएंगे। इससे अन्तोगत्वा ऐसे गैर-सरकारी संगठनों के कार्यो में बाधा उत्पन्न होगी और इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराता रहेगा।
छोटे जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले स्थानीय गैर सरकारी संगठन जो दूरदराज के स्थानों में स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर काम करते हैं, उनके पास अधिक संसाधन नहीं होते हैं और यही कारण है कि वे निरंतर संसाधनों एवं आवश्यक धन की पूर्ति हेतु बड़े गैर-लाभकारी संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं।  इन स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों की परियोजनाएं और गतिविधियाँ ज्यादातर उन बड़े गैर-लाभकारी संगठनों द्वारा दिये गए अनुदानों पर निर्भर करती हैं। अब नए संशोधन के प्रावधानों के अनुसार विदेशों से प्राप्त अनुदान को एक संगठन से दूसरे संगठन को हस्तांतरित करना पूरी तरह से निषिद्ध कर दिया गया है, इससे छोटे और दूर दराज वाले इलाकों में अपना अच्छा प्रभाव रखने वाले और अच्छी तरह से प्रदर्शन करने वाले गैर-सरकारी संगठन गायब हो जाएंगे और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
हालांकि सरकार ने यह तर्क दिया है कि नया संशोधन विभिन्न अनुपालनों को मजबूत करने, विदेशी अनुदानों की प्राप्ति एवं उसके उपयोग में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने और वास्तविक रूप से समाज के कल्याण के लिए कार्य करने वाले एनजीओ को प्रोत्साहन देने के लिए किया गया है, लेकिन उक्त अधिनियम के धारा 11 में किया गया संशोधन ठीक इसके विपरीत प्रतीत होता है। धारा 11 में किए गए संसोधन के अंतर्गत केंद्र सरकार  किसी भी मनमाने स्रोत से प्राप्त सूचना या रिपोर्ट के आधार पर, केवल संक्षिप्त पूछताछ के आधार पर, जबकि विस्तारित पूछताछ लंबित हो यानी जांच पूरी नहीं हुई हो, किसी भी गैर-सरकारी संगठन को विदेशी अनुदान का उपयोग न करने या भविष्य में विदेशी अनुदान प्राप्त न करने का आदेश दे सकती हैं।
इसके अलावा धारा 13 में किए गए संशोधन द्वारा जब किसी गैर-सरकारी संगठन का प्रमाण पत्र निरस्त करने के सवाल पर विचार लंबित हो तो केंद्र सरकार को 180 और दिनों अर्थात कुल 360 दिनों के लिए, गैर सरकारी संगठन के प्रमाण पत्र को निलंबित करने की शक्ति मिलती है। किसी गैर-सरकारी संगठन के प्रमाण पत्र को रद्द करने के सवाल पर सरकार को जल्द से जल्द निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि और 6 महीने तक प्रमाण पत्र निलंबित करने से किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी बल्कि यह केवल गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित विकास परियोजनाओं को प्रभावित करेगा, क्योंकि वे विदेशी अनुदान की प्राप्ति और उनके उपयोग के लिए सरकार की दया पर निर्भर होंगे।
इन नए संसोधनों में नाटकीय रूप से एक नए धारा अर्थात धारा 14 ए को जोड़ा गया है, जो किसी भी गैर-सरकारी संगठन को उपरोक्त अधिनियम के तहत प्राप्त अपने प्रमाण पत्र को स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करने का प्रावधान प्रदान करता है।  सामान्य परिस्थितियों में कोई भी गैर सरकारी संगठन स्वेच्छा से उपरोक्त अधिनियम के तहत प्राप्त अपने प्रमाण पत्र का आत्मसमर्पण नहीं करेगा।  इस प्रावधान के दुरुपयोग को समझने के लिए किसी आइंस्टीन के आईक्यू की आवश्यकता नहीं है।  जब कोई भी एनजीओ सरकार की जन विरोधी नीतियों और निरंकुशता के खिलाफ काम करने वाले कार्यकर्ताओं को वित्त पोषित करेगी, तो सरकार उस एनजीओ के प्रबंधकीय पदों पर कार्य करने वाले प्रमुख व्यक्तियों के लिए मुसीबतें खड़ी करेगी और स्वेच्छा से अपने प्रमाणपत्रों को आत्मसमर्पण करने के लिए उन पर दबाव बनाएगी और इस तरह सरकारें अपने ऊपर लगने वाले दोष से भी दोषमुक्त हो जाएगी।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता हैं कि यह काफी हद तक सच है कि अक्सर विभिन्न एनजीओ को कर चोरी, मनी लॉन्ड्रिंग गतिविधियों, आतंकियों को फंड मुहैया कराने, बड़े बड़े अपराधियों के अवैध संपत्तियों के सुरक्षित ठिकाने के रूप में कार्य करने इत्यादि गतिविधियों में शामिल पाया जाता है और इसके अलावा एनजीओ सेक्टर में काम करने वाले कई प्रमुख व्यक्ति बेहिसाब रूप से धन संचय के अपराध में भी शामिल पाए जाते है, जो अन्यथा गरीबों के कल्याण हेतु उपयोग किया जाना चहिए था। इसलिए सरकार को विदेशी अनुदानों को विनियमित करने के लिए उचित कानून लागू करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि धन का उपयोग केवल यथोचित उद्देश्यों के लिए ही किया जा सके और हमारे राष्ट्रीय हित के खिलाफ इस्तेमाल न हो, लेकिन साथ ही साथ यह भी सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है कि लोकतंत्र के पांचवें स्तंभ के रूप में कार्य करने वाले वास्तविक एनजीओ और इस क्षेत्र में शामिल  निस्वार्थ भाव से काम कर रहे व्यक्तियों के कार्य मे व्यर्थ और अनावश्यक बाधा न उत्पन्न हो।