पिछले कुछ दिनों से सम्पूर्ण भारत हैदराबाद के एक महिला पशु चिकित्सक, डॉ. प्रियंका रेड्डी के बलात्कार और तत्पश्चात नृशंस हत्या जिसे बलात्कार के बाद जिंदा जला दिया गया था, के मुद्दे को लेकर उबल रहा है। एक कैंडल मार्च, सड़कों पर विरोध, एक नए कानून की मांग या मौजूदा कानून के मजबूत क्रियान्यवन की पहल - हमें एक समाज के रूप में सबसे पहले यह तय करना होगा कि हम वास्तव में चाहते क्या हैं और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए वास्तव में क्या करने की आवश्यकता हैं। निर्भया मामले से लेकर आज तक यह भारत की एकमात्र घटना नहीं है, जब पूरा देश उबल रहा हो, इस तरह की घटनाओं की एक श्रृंखला भरी पड़ी हैं, लेकिन हर बार हम किसी प्रकार का विरोध करते हैं और फिर धीरे-धीरे सब कुछ हमारी याददाश्त से धूमिल हो जाता है।
भारत में जब एक बच्ची का जन्म होता है या एक नवविवाहित वधू अपने पति के घर में प्रवेश करती है, तो उसे लक्ष्मी के रूप में माना जाता है, जब हम नवरात्र त्योहार मनाते हैं, तो हम महिषासुर नामक राक्षस का नाश करने वाली एक नारी, शक्ति की देवी - माँ दुर्गा, की उपासना करते हैं और बसंतपंचमी के दिन भी हम सब एक नारी, विद्या की देवी - माँ सरस्वती, की उपासना करते हैं। हम भारतीय, एक समाज के रूप में, हमेशा अपने जीवन में जरूरत की तीन सबसे अहम चीजों - पैसा, शक्ति और ज्ञान - के लिए किसी न किसी देवी/नारी की ओर रूख करते हैं। आधुनिक समय में हम बहुत हद तक बालिकाओं को उनकी पढ़ाई के लिए स्कूलों में भेजने में सफल हुए हैं, ताकि हर लड़की में माँ सरस्वती को महसूस किया जा सके और कई लड़कियाँ जब अध्ययन के बाद एक अच्छे करियर की ओर बढ़ती हैं, तो यह हर नारी में माँ लक्ष्मी को साकार करने जैसा होता हैं, लेकिन जब बात हर लड़की/नारी में शक्ति की प्रतीक - माँ दुर्गा को प्रतिबिम्बित करने की होती हैं, जो अपने दुश्मन को नष्ट कर सकती है और बुरे लोगों पर जीत हासिल कर सकती है और न केवल स्वयं को बल्कि सम्पूर्ण समाज को ऐसे राक्षसों से बचाने में सक्षम है, तो हम वहाँ स्पष्ट रूप से विफल हो जाते हैं।
भारत में हम केवल उन्हीं लड़कियों को शारीरिक प्रशिक्षण प्रदान करते हैं जो सेना, पुलिस आदि में शामिल होना चाहती हैं, पहलवान बनना चाहती हैं या ऐसे ही क्षेत्रों में अपना कैरियर बनाना चाहती हैं जहाँ इस तरह के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। वर्तमान में समय की अनिवार्य आवश्यकता यह है कि जिस तरह हम बचपन से अपनी बच्चियों को पढ़ाई के लिए स्कूलों में भेजते हैं, ठीक उसी तरह हमें उन्हें बचपन से ही शारीरिक प्रशिक्षण जैसे कराटे, जूडो, मार्शल आर्ट आदि के लिए भेजना चाहिए ताकि लड़कियां न केवल शिक्षा के क्षेत्र में समय के साथ उन्नति करें बल्कि जैसे-जैसे वे बड़े हो, वैसे-वैसे शारीरिक रूप से अपनी रक्षा करने में भी सक्षम हो पाएं। सदियों से हमने महिलाओं को सभी परिप्रेक्ष्य में पुरुषों पर निर्भर होना ही सिखाया है। आधुनिक समय में अधिकाधिक महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती जा रही हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर अभी भी अपनी शारीरिक सुरक्षा के लिए दूसरों पर ही निर्भर हैं। भारत मे सभी विद्यालयों और कॉलेजों को लड़कियों के लिए शारीरिक प्रशिक्षण को अपने पाठ्यक्रम में एक अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करना चाहिए, ताकि ये शारीरिक प्रशिक्षण सभी लड़कियों के लिए आसानी से सुलभ हो सकें।
लड़कियों को शारीरिक प्रशिक्षण प्रदान करने के अलावा हमें उन लड़कों में बदलाव करने की आवश्यकता है जो इन सभी घटनाओं के असली अपराधी हैं। हम सब एक समाज के रूप में या विशेष रूप से कहे तो माता-पिता के रूप में अपने बेटों को यह सिखाने में विफल रहे हैं की लड़कियों और महिलाओं से कैसे बर्ताव करना चाहिए। हम हमेशा अपनी बेटियों से पूछते हैं और जब भी वे रात में देर से घर लौटती हैं तो उन्हें प्रायः फोन करते हैं और इसमें कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि यह दर्शाता है हम उसकी कितनी परवाह और चिंता करते हैं लेकिन हम कभी भी अपने बेटों से प्रश्न नहीं पूछते हैं और न ही जब वे देर से घर लौटते हैं तो उन्हें फोन करते हैं - कौन जानता है कि वह देर रात किसी लड़की के लिए परेशानी का कारण बन रहा हो। हम हमेशा लड़कियों से प्रश्न पूछते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे मामलों में किसी का भाई, पति, बेटा या कई मामलों में पिता भी शामिल होते हैं। हमें एक समाज के रूप में पुरुषों से सवाल पूछने शुरू करने चाहिए जब भी हम अपने भाई, पति, बेटे आदि को बिना किसी उद्देश्य या ठोस कारण के देर रात तक घरों से बाहर पाते हैं।
इस समस्या के मूल में पुरुषों और लड़को की महिलाओं के प्रति सोच और लड़की या महिलाओ से कैसा बर्ताव करना चाहिए इस संदर्भ में उन्हें समाज द्वारा दी गई सीख हैं। हम उस समय, जब प्रत्येक नारी के साथ, पत्नी को छोड़कर, माँ के रूप में और हर लड़की के साथ बहन के रूप में बर्ताव और उसकी देखभाल करने की शिक्षा दी जाती थी, से आज के समय, जब समाज स्वयं ही स्त्री को उसकी कामुकता के लिए महिमामंडित करता हो, तक एक लंबी और दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा तय कर आये हैं। स्त्री को देखने का हमारा नजरिया पहले जननी (माँ - जीवन का स्रोत) होने से अब सिर्फ एक भौतिक शरीर - भौतिक सुख का स्रोत होने तक नाटकीय रूप से परिवर्तित हुआ हैं। पहले हमारी शिक्षा प्रणाली में मौजूद नैतिक शिक्षाएं आजकल पूरी तरह से अनुपस्थित हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बिना चरित्र वाला समाज शिक्षित अनपढ़ लोगों को तैयार करता है जो केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए समाज तक को नष्ट कर देने को आतुर होते हैं।
अंत में, यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि लड़कियों को शारीरिक प्रशिक्षण प्रदान करने से स्थिति को बेहतर बनाने में मदद अवश्य मिलेगी किन्तु यह समस्या का सिर्फ एक प्रत्युत्तर होगा न कि समस्या के मूल पर चोट। इसका मुख्य समाधान जो इस समस्या को जड़ से मिटा सकता है वह है लड़कों के लिए विशेष रूप से नैतिक शिक्षा पर जोर जो उनकी परवरिश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए।
लेखक - प्रमोद कुमार